रविवार, 28 दिसंबर 2014

आई आई टी कानपूर एलुमनाई एसोसिएशन के अध्यक्ष डा अशोक गुप्ता एवं आई आई टी कानपूर कैंपस के निवासी मनाली चक्रवर्ती की कवितायें

सुना है लोकतंत्र है भारत में 
 --Ashok K. Gupta ,
आई आई टी कानपूर एलुमनाई एसोसिएशन के अध्यक्ष एवं
Professor Emeritus of Marketing
Ohio University, Athens, OH 45701, USA
Phone: 740 707 9008

डरी डरी सी ये आँखें
सूखे सूखे से होठ
जुबां को लग गया है लकवा शायद
ख़ुदा इतना भी खौफ़ कैसा?

सुना है लोकतंत्र है भारत में
नागरिकों के भी कुछ अधिकार हैं
और दंड देने से पहिले
निष्पक्छ सुनवाई का भी नियम है

फिर यह  तानाशाही कैसी?
मुंह खोलते डर क्यों लगता है?
कमबख्त पेट की आग
क्या-क्या सहन करने को मजबूर नहीं करती?

हमारे पेट पर लात मार आप कहते हैं,
"जाइये अदलात का दरवाजा खटखटाइये
वहीं से तुम्हें न्याय मिलेगा"

खूब मजाक कर लेते हैं साहिब!
  
आप भी जानते हैं और हम भी
न हमारे पास समय है, न पैसा 
शायद गरीबों के लिये न कोई नियम हैं न अदालत
न उनके अधिकारों की किसी को परवाह
करदी हैं कानून की सब किताबें बंद हमारे लिये

एक मजदूर साथी ने चुनौती तो दी थी आपको
बहुत चक्कर लगाये थे उन्होंने कोर्ट-कचहरी के
सब खरीद रखा है आपने. न्याय क्या ख़ाक मिलता
करवा दिया विधवा उनकी पत्नी को
मोटर साईकिल "एक्सीडेंट" में!

किसका दरवाजा खटखटायें हम?
किसके सामने गिड़गिड़ायें हम?
न्याय कहां है? सब बिकाऊ है यहाँ.
और मेरे पास देने को दाम भी कहाँ.   

कितने तिलमिलाते हैं बड़े साहिब 
जब उनके अपने हकों पर चोट पहुँचती है
आप के लिए तो ग्रीवांस कमेटियां हैं, अदलात भी.
हम कहाँ जायें?

कभी हमारे जूते पहनो तो पता लगे
हम पर क्या गुजरती है?

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एक और अनेक
 - मनाली

आपने सही कहा अशोक 
पर यह आधी कहानी है 
क्यों कि....

हर  मशीन  के  पीछे  एक  मज़दूर 
हर कल के पीछे एक मज़दूर
हर हल के पीछे एक मज़दूर 
हर  टुकड़ा  ज़मीन  को  जोतता  एक  मज़दूर 
हर बाली गेंहू का  उगाता एक  मज़दूर 
हर मकान बनाता एक  मज़दूर
हर दूकान चलाता एक मज़दूर
हर  कपडा  बुनता  एक मज़दूर
हर ईंटा पाटता एक मज़दूर
हर  जूता सिलता एक मज़दूर
ब्रिज, रेल, हवेली, बाँध, 
इस दुनिया का हर सामान बनता मज़दूर 

और जब  यह अलग  थलग पड़े बेचारे एक-एक मज़दूर एक  हो जाएंगे  तो वे जान जाएंगे  कि
दुनिया बदलने की ताक़त हैं उनमे, क्यों कि जिससे उन्हें दबाया जाता है वे सारे साजो  सरंजाम के पीछे भी हैं  मज़दूर    

हर बन्दूक के पीछे है एक मज़दूर
हर  तोप  के   पीछे  एक मज़दूर
हर टैंक के पीछे एक मज़दूर
हर मिसाइल के पीछे एक मज़दूर
हर वर्दी के नीचे एक मज़दूर
हर टोपी के नीचे एक मज़दूर 

इसीलिए हमें करना है उस पल की तैयारी जब सब साफ़ हो जाएगा 
दूध का दूध पानी का पानी 
हकदारों को मिलेगा हक़,  मेहनतकशों को मेहनत का फल 
हमें इंतज़ार है उस पल का
चाहे वो हमारे चंद साल की ज़िन्दगी  के  बाद  ही  क्यों  न  आये  
हमें रहेगा उस पल का बेसब्री से  इंतज़ार

नए साल की शुभकामनाएं आप सब को 

विवेक मेहता की ओर से  

मनाली दी की उम्मीद से भरी खूबसूरत कविता के पीछे चलिये मैं भी कुछ लाइनें जोड़ दूं जो लिखा गई थीं मुझसे कभी कुछ और एहसासों के बीच पर शायद आज के हमारे इस संदर्भ में भी ठीक बैठती हैं। इस उम्मीद में कि आने वाले नये साल में और उसके आगे भी जुड़ना जारी रहेगा। आप सभी को शुभकामनायें।

इस सोच का कोई अंत नहीं,
माना कि,
अभी बसंत नहीं.
पर समय तो चलता रहता है,
मौसम है, 
बदलता रहता है.
हर मौसम की एक बारी है,
क्यूंकि समय पर कुछ उधारी है.
हाँ देर तो लगनी है थोड़ी,
जुड़ने देते हैं कड़ी-कड़ी,
देखें क्या है बनता,
खुली ज़ंजीर 
या
हथकड़ी...
विवेक                                       

मेरे बारे में

मेरी फ़ोटो
मैं परिवर्त्तन हूँ। जीवन के हर पहलु चाहे वह समाज व्यवस्था हो, अर्थ व्यवस्था हो, शिक्षण हो या ज्ञान विज्ञानं, राजनीति हो, खाद्य सुरक्षा हो या फिर आजीविका सम्बन्धित प्रश्न हो या पर्यावरण या जल प्रबंधन मैं गतिशील रहना चाहता हूँ. लेकिन मुझे परिवर्त्तन वही पसंद है जो क्रांतिकारी और प्रगतिशील हो, आम आदमी के भले के लिए हो और उसके पक्ष में हो, जो कमजोर वर्ग की भलाई के लिए हो जैसे बच्चे, महिलाएं, किसान, मजदूर, आदिवासी इत्यादि। मैं उनलोगों का साथ देता हूँ जो आगे देखू है। पीछे देखू और बगल देखुओं से सख्त नफरत है मुझे। क्या अब आप मेरे साथ चलना चाहेंगे? तो आइये हम आप मिलकर एक तूफ़ान की शक्ल में आगे बढ़ें और गरीबी, अज्ञान के अंधकार और हर प्रकार के अन्याय एवं भ्रष्टाचार जैसे कोढ़ पर पुरजोर हमला करते हुए उसे जड़ से उखाड़ फेंके।