साथी अफ़लातून अफ़लू के सौजन्य से प्राप्त।
श्री नारायण देसाई ने अपने साथियों के नाम यह पत्र लिखा है । १० दिसंबर को मस्तिष्क -स्ट्रोक के ठीक पहले लिखा है । सार्वजनिक महत्व का है इसलिए जारी कर रहा हूँ । टिप्पणियाँ ,प्रतिक्रिया सादर आमंत्रित हैं -
संपूर्ण क्रान्ति विद्यालय
वेडछी
२२.११.२०१०
प्यारे दोस्तों ,
सप्रेम जय जगत ।
मेरे बाद की पीढ़ी वाले , लेकिन विचारों में मुझसे आगे
जानेवाले लोगों तक पहुंच पाने के मनोरथसे यह पत्र मैं अपने दो पुत्रों द्वारा
इलेक्ट्रॉनिक प्रसार माध्यम से भेज रहा हूँ । आशा है आपमें से कुछ को जरूर मेरा यह
पागलपन छूएगा । तुकाराम ने गाया है : ” आम्ही बिगड़लो ,तुम्हीं बिघडाना ! “
दिन दहाडे स्वप्न देखना मुझे बुरा नहीं लगता । अक्सर
जब लोग मुझे पूछते हैं कि ’ क्या गांधी आज प्रासंगिक हैं ? ’ तब मुझे उसके सीधे
जवाब ’ जी हाँ ’ के अलावा और भी एक विचार आता है , कि गांधी विचार जो एकरूप में
भूदान – ग्रामदान-ग्राम स्वराज आन्दोलनमें और दूसरे रूपमें संपूर्ण क्रांति
आन्दोलन के रूपमें प्रकट हुआ था , वह न आज सिर्फ़ प्रासंगिक है , बल्कि आज उसे
प्रासंगिक बनाया भी जा सकता है । संपूर्ण क्रांति के लिए मेरी कल्पनाकी व्यूहरचना
के आधार पर वह नीचे प्रस्तुत है ।
आज का संकट सर्वक्षेत्रीय और संपूर्ण है , इसलिए उसका
जवाब भी संपूर्ण होना चाहिए । संपूर्ण क्राम्ति के लिए व्यक्ति की
मनोवृत्तिमें तथा समाज के मूल्योंमें परिवर्तन होना चाहिए । इस दोहरी
प्रक्रिया के लिए पंचविध कार्यक्रम हों , जिसके क्रममें विविध स्थानो की
विविध परिस्थिति के कारण क्रम परिवर्तन हो सकता है और हो ।
1.
प्रबोधन : ( कोन्सिएन्टाइज़ेशन ) : लोगों को असम्तोष है ,
लेकिन परिस्थिति का ठीक से विश्लेषण नहीं , न पूरा आकलन ही है ।हमें स्वयं अपने से
शुरु कर लोगों को खुद अपनी गुत्थियां सुलझाने के लिए प्रवृत्त करना चाहिए । शासन ,
नेता या अवतार के आने का इन्तेजार करना नहीं चाहिए । लोकजागरण के हर संभव तरीके का
प्रयोग करना चाहिए । मुखोमुखी बातचीत और चिट्ठी पत्र से लेकर गोष्ठियां , सभाएं
तथा ’जात्रा’ , मेले, डिंडी आदि शताब्दियों से चले आये, लेकिन आजकल पुराने पड़ रहे
माध्यमों से लेकर नाटक , पथनाट्य , छाया नाटक , मुशायरे , कवि सम्मेलन ,
’तमाशे’, चौपाल , ’भवाई’,’दायरे’ इत्यादि सांस्कृतिक उपकरण एवं कार्टून
प्रदर्शनियां,डॉक्यूमेन्टरी,फिल्म,रेडियो,टी.वी. तथा वेबसाइट आदि तक ।
2.
संगठन : प्रबोधन के साथ साथ ,एवं उसके आगे बढ़ने के
बाद भी संगठन होते रहना चाहिए । पूरी क्रांति तो तब होगी जब लोग उसे उठा लेंगे
।लेकिन उसके अग्रदूतकी भी आवश्यकता रहेगी । लेकिन संगठन करने की हमारी
प्रक्रियामें कुछ गुणात्मक परिवर्तन की जरूरत है । यह तो जाहिर है कि गांधी ,
विनोबा, जयप्रकाश नहीं हैं । इसीलिए संगठन की प्रक्रिया न सिर्फ़ आदर्शों की
दृष्टिसे वरन व्यावहारिक आवश्यकतासे भी कुछ अलग होना जरूरी है । विनोबा ने
’गणसेवकत्व’ के विचार बीज बोये थे , लेकिन अभी तक का हमारा अनुभव बहुत कुछ एक
नेतृत्व आधारित ही रहा है । तरुण शांति सेना और मेडिको फ्रेण्ड सर्कल नयी दिशामें
कुछ गति कर रहे थे । लेकिन अभी लम्बी राह बाकी है । मेंसा लेखा के प्रयोग कुछ पथ
प्रदर्शन कर सकते हैं । कालेजोंमें , छात्रालयोंमें , गाँवोंमें , मुहल्लोंमें
आरंभ करना होगा । संगठन अहिंसा की अग्नि परीक्षा है – ऑर्गनाइजेशन इज़ द एसिड टेस्ट
ऑफ़ नॉनवायल्न्स इस गांधी वाणी को निरंतर मद्देनजर रखकर आगे बढ़ना होगा ।
3.
नमूने प्रस्तुत करना : हमारा जीवन दर्शन हमारी जीवन शैलीसे गाढ़ संबध
रखता है । जगह जगह ऐसे केन्द्र बनाने की कोशिश हो जहां व्यक्तिगत गुण संवर्धन ,
सामाजिक न्याय एवं शांति तथा सृष्टि के साथ संवादिता (हार्मनी) पैदा करने की सतत
साधना होती हो । ऐसे नमूने निकट तथा दूर दोनों तरफ़ ध्यान आकर्षित कर सकते हैं तथा
परस्पर अनुभवों के आदान-प्रदान से तो तात्कालिक लाभ मिल ही सकता है । इन नमूनों का
आधार प्रयोगवीरों की गुणवत्ता पर होगा और यही उनका मानदण्ड भी होगा । व्यक्तिगत
जीवनशैली के नमूने स्वावलम्बन , परस्परावलम्बन या ग्राम स्वावलम्बन के हो सकते हैं
। वैकल्पिक उर्जा – सौर,पवन,जल,पशु, उर्जा आदि – के विविध प्रकार के प्रयोगों की
आज अत्यन्त आवश्यकता है । हम में से कुछ लोग इन प्रयोगों के पीछे जीवन बिता सकते
हैं । गांधी के सारे रचनात्मक कार्य नवसंस्करण की राह देख रहे हैं ।उन्हें
इन्तेज़ार है उन प्राणवान हाथों की जिन्हें जीवन की ताकतों के लिए प्रयोग करने की
ललक है ।
4.
संघर्ष : संपूर्ण क्रांति का मार्ग हमेशा सीधा या आसान
तो होगा नहीं । वर्तमान व्यवस्था के अनेक पहलू उसके आडे आ सकते हैं । वैसे देखें
तो संपूर्ण क्रांति अपने में ही यथास्थिति – स्टेटस को – केखिलाफ़ एक बगावत है ।
इसलिए अकसर शोषण , अन्याय , अनीति , भ्रष्टाचार के खिलाफ़ संघर्ष के मौके आते ही
रहेंगे । हर संघर्ष के समय संपूर्ण क्रांतिकारी का ध्यान गांधी के बताये हुए उन
तीन उसूलों पर स्थिर रहना चाहिए जो गांधी ने सत्याग्रही के लिए अनिवार्य माने थे ।
उनकी अपेक्षा थी कि स्त्याग्रही सत्यकी ठोस आधारशिला पर ही खड़ा रहेगा , व अपना
ध्येय हासिल करने के लिए वह तीव्रतम कष्ट सहने के लिए तैयार होगा
और उसके दिलमें अन्यायपूर्ण व्यवस्था के प्रति चाहे जितना आक्रोश हो , किन्तु
प्रतिपक्षी के लिए तो निरा निर्मल प्रेम ही होगा । साधन शुद्धि ही संपूर्ण
क्राम्तिकारी परख और वही उसकी कसौटी होगी ।
5.
प्रकाशन : इस सारे कार्यक्रम के लिए प्रचार एवं प्रकाशन
की जरूरत होगी । यद्यपि गांधी का व्यक्तित्व तथा उनका जीवन ही प्रकाशन का उत्तम
माध्यम बन जाता था , फिर भी यह ध्यान रहे कि उन्होंने लगभग आधे शतक तक प्रकाशन का
कोई न कोई माध्यम सम्हाल कर अपने साथ रखा था ।प्रकाशन का एक व्यापक , विकेन्द्रित
तंत्र खड़ा करना होगा । अनेक आधुनिक उपकरणों ने विकेन्द्रित प्रकाशन सुलभ बना दिया
है । हममें से कइयों को इस काम में अपनी शक्ति और सामर्थ्य लगाने होंगे ।
सब से पहले तो इस समूचे विचार पर हमें आपकी बहुमूल्य
टिप्पणी चाहिए । यह सारा प्रयास ही ’एक: अहम बहुस्याम’ का है । आपके विचारों से
हमारे विचारों का स्पष्टीकरण , शुद्धीकरण एवं संशोधन होगा ।
फिर आपको यह सोचना होगा कि हम किस प्रकार इस अभियान
में जुड़ सकते हैं । इसमें सब प्रकार के लोगों का उपयोग हो सकता है , आंशिक समय
देनेवाले , एक नि्श्चित प्रकार का ही काम करनेवाले से ले कर इसी काम में पूरी
शक्ति लगाने वाले तक की । अपने अलावा औरों को जुटाने वाले भी चाहिए ।
हमारे विद्यालय की दृष्टि से इसमें प्रशिक्षण पाने के
लिए योग्य एवं उत्सुक प्रसिक्षार्थी चाहिए । हमारे काम में प्रत्यक्ष सहभागी बनने
के लिए साथी चाहिए। आप अपने कुछ नये साथियों को हमारे खुले सहजीवन से परिचित कराके
अपनी सेकण्ड लाइन तैयार करना सोचते हों तो एक दो साथियों को उस दृष्टि से यहां
भेजिए ।
और उपरोक्त पांचों प्रकार के कामों में अभिज्ञता
रखनेवाले साथी तो इस अभियान के निहायत जरूरी है ही । अपने क्षेत्रों यदि आज तक ऐसा
कुछ न कुछ शुरु न कर चुके हों तो आज से शुरु कीजिए। इस काम में क्या अड़चनें आ रही
हैं उनके विषय में हम आपस में सलाह मशविरा तो करें । और यह भी खोजें कि कहां से
किस प्रकार की सहायता मिल सकती है।स्व.श्री सूर्यकांत त्रिपाठी ( हरिवंशराय बच्चन
की पंक्तियां) की एक पंक्ति ने मुझे तो बरसों से क्या दशाब्दियों से प्रेरित किया
है:
’आज लहरों में निमंत्रण, तीर पर कैसे रुकूँ मैं ?’
स्नेहसने सलाम,
नारायण देसाई.
(इन विचारों से मेरी सहमती नहीं है इसीलिए मैं एक
राजनैतिक दल से जुड़ा हूँ ।)
प्यारे दोस्तों ,
सप्रेम जय जगत ।
मेरे बाद की पीढ़ी वाले , लेकिन विचारों में मुझसे आगे जानेवाले लोगों तक पहुंच पाने के मनोरथसे यह पत्र मैं अपने दो पुत्रों द्वारा इलेक्ट्रॉनिक प्रसार माध्यम से भेज रहा हूँ । आशा है आपमें से कुछ को जरूर मेरा यह पागलपन छूएगा । तुकाराम ने गाया है : ” आम्ही बिगड़लो ,तुम्हीं बिघडाना ! “
दिन दहाडे स्वप्न देखना मुझे बुरा नहीं लगता । अक्सर
जब लोग मुझे पूछते हैं कि ’ क्या गांधी आज प्रासंगिक हैं ? ’ तब मुझे उसके सीधे
जवाब ’ जी हाँ ’ के अलावा और भी एक विचार आता है , कि गांधी विचार जो एकरूप में
भूदान – ग्रामदान-ग्राम स्वराज आन्दोलनमें और दूसरे रूपमें संपूर्ण क्रांति
आन्दोलन के रूपमें प्रकट हुआ था , वह न आज सिर्फ़ प्रासंगिक है , बल्कि आज उसे
प्रासंगिक बनाया भी जा सकता है । संपूर्ण क्रांति के लिए मेरी कल्पनाकी व्यूहरचना
के आधार पर वह नीचे प्रस्तुत है ।
आज का संकट सर्वक्षेत्रीय और संपूर्ण है , इसलिए उसका
जवाब भी संपूर्ण होना चाहिए । संपूर्ण क्राम्ति के लिए व्यक्ति की
मनोवृत्तिमें तथा समाज के मूल्योंमें परिवर्तन होना चाहिए । इस दोहरी
प्रक्रिया के लिए पंचविध कार्यक्रम हों , जिसके क्रममें विविध स्थानो की
विविध परिस्थिति के कारण क्रम परिवर्तन हो सकता है और हो ।
1.
प्रबोधन : ( कोन्सिएन्टाइज़ेशन ) : लोगों को असम्तोष है ,
लेकिन परिस्थिति का ठीक से विश्लेषण नहीं , न पूरा आकलन ही है ।हमें स्वयं अपने से
शुरु कर लोगों को खुद अपनी गुत्थियां सुलझाने के लिए प्रवृत्त करना चाहिए । शासन ,
नेता या अवतार के आने का इन्तेजार करना नहीं चाहिए । लोकजागरण के हर संभव तरीके का
प्रयोग करना चाहिए । मुखोमुखी बातचीत और चिट्ठी पत्र से लेकर गोष्ठियां , सभाएं
तथा ’जात्रा’ , मेले, डिंडी आदि शताब्दियों से चले आये, लेकिन आजकल पुराने पड़ रहे
माध्यमों से लेकर नाटक , पथनाट्य , छाया नाटक , मुशायरे , कवि सम्मेलन ,
’तमाशे’, चौपाल , ’भवाई’,’दायरे’ इत्यादि सांस्कृतिक उपकरण एवं कार्टून
प्रदर्शनियां,डॉक्यूमेन्टरी,फिल्म,रेडियो,टी.वी. तथा वेबसाइट आदि तक ।
2.
संगठन : प्रबोधन के साथ साथ ,एवं उसके आगे बढ़ने के
बाद भी संगठन होते रहना चाहिए । पूरी क्रांति तो तब होगी जब लोग उसे उठा लेंगे
।लेकिन उसके अग्रदूतकी भी आवश्यकता रहेगी । लेकिन संगठन करने की हमारी
प्रक्रियामें कुछ गुणात्मक परिवर्तन की जरूरत है । यह तो जाहिर है कि गांधी ,
विनोबा, जयप्रकाश नहीं हैं । इसीलिए संगठन की प्रक्रिया न सिर्फ़ आदर्शों की
दृष्टिसे वरन व्यावहारिक आवश्यकतासे भी कुछ अलग होना जरूरी है । विनोबा ने
’गणसेवकत्व’ के विचार बीज बोये थे , लेकिन अभी तक का हमारा अनुभव बहुत कुछ एक
नेतृत्व आधारित ही रहा है । तरुण शांति सेना और मेडिको फ्रेण्ड सर्कल नयी दिशामें
कुछ गति कर रहे थे । लेकिन अभी लम्बी राह बाकी है । मेंसा लेखा के प्रयोग कुछ पथ
प्रदर्शन कर सकते हैं । कालेजोंमें , छात्रालयोंमें , गाँवोंमें , मुहल्लोंमें
आरंभ करना होगा । संगठन अहिंसा की अग्नि परीक्षा है – ऑर्गनाइजेशन इज़ द एसिड टेस्ट
ऑफ़ नॉनवायल्न्स इस गांधी वाणी को निरंतर मद्देनजर रखकर आगे बढ़ना होगा ।
3.
नमूने प्रस्तुत करना : हमारा जीवन दर्शन हमारी जीवन शैलीसे गाढ़ संबध
रखता है । जगह जगह ऐसे केन्द्र बनाने की कोशिश हो जहां व्यक्तिगत गुण संवर्धन ,
सामाजिक न्याय एवं शांति तथा सृष्टि के साथ संवादिता (हार्मनी) पैदा करने की सतत
साधना होती हो । ऐसे नमूने निकट तथा दूर दोनों तरफ़ ध्यान आकर्षित कर सकते हैं तथा
परस्पर अनुभवों के आदान-प्रदान से तो तात्कालिक लाभ मिल ही सकता है । इन नमूनों का
आधार प्रयोगवीरों की गुणवत्ता पर होगा और यही उनका मानदण्ड भी होगा । व्यक्तिगत
जीवनशैली के नमूने स्वावलम्बन , परस्परावलम्बन या ग्राम स्वावलम्बन के हो सकते हैं
। वैकल्पिक उर्जा – सौर,पवन,जल,पशु, उर्जा आदि – के विविध प्रकार के प्रयोगों की
आज अत्यन्त आवश्यकता है । हम में से कुछ लोग इन प्रयोगों के पीछे जीवन बिता सकते
हैं । गांधी के सारे रचनात्मक कार्य नवसंस्करण की राह देख रहे हैं ।उन्हें
इन्तेज़ार है उन प्राणवान हाथों की जिन्हें जीवन की ताकतों के लिए प्रयोग करने की
ललक है ।
4.
संघर्ष : संपूर्ण क्रांति का मार्ग हमेशा सीधा या आसान
तो होगा नहीं । वर्तमान व्यवस्था के अनेक पहलू उसके आडे आ सकते हैं । वैसे देखें
तो संपूर्ण क्रांति अपने में ही यथास्थिति – स्टेटस को – केखिलाफ़ एक बगावत है ।
इसलिए अकसर शोषण , अन्याय , अनीति , भ्रष्टाचार के खिलाफ़ संघर्ष के मौके आते ही
रहेंगे । हर संघर्ष के समय संपूर्ण क्रांतिकारी का ध्यान गांधी के बताये हुए उन
तीन उसूलों पर स्थिर रहना चाहिए जो गांधी ने सत्याग्रही के लिए अनिवार्य माने थे ।
उनकी अपेक्षा थी कि स्त्याग्रही सत्यकी ठोस आधारशिला पर ही खड़ा रहेगा , व अपना
ध्येय हासिल करने के लिए वह तीव्रतम कष्ट सहने के लिए तैयार होगा
और उसके दिलमें अन्यायपूर्ण व्यवस्था के प्रति चाहे जितना आक्रोश हो , किन्तु
प्रतिपक्षी के लिए तो निरा निर्मल प्रेम ही होगा । साधन शुद्धि ही संपूर्ण
क्राम्तिकारी परख और वही उसकी कसौटी होगी ।
5.
प्रकाशन : इस सारे कार्यक्रम के लिए प्रचार एवं प्रकाशन
की जरूरत होगी । यद्यपि गांधी का व्यक्तित्व तथा उनका जीवन ही प्रकाशन का उत्तम
माध्यम बन जाता था , फिर भी यह ध्यान रहे कि उन्होंने लगभग आधे शतक तक प्रकाशन का
कोई न कोई माध्यम सम्हाल कर अपने साथ रखा था ।प्रकाशन का एक व्यापक , विकेन्द्रित
तंत्र खड़ा करना होगा । अनेक आधुनिक उपकरणों ने विकेन्द्रित प्रकाशन सुलभ बना दिया
है । हममें से कइयों को इस काम में अपनी शक्ति और सामर्थ्य लगाने होंगे ।
सब से पहले तो इस समूचे विचार पर हमें आपकी बहुमूल्य
टिप्पणी चाहिए । यह सारा प्रयास ही ’एक: अहम बहुस्याम’ का है । आपके विचारों से
हमारे विचारों का स्पष्टीकरण , शुद्धीकरण एवं संशोधन होगा ।
फिर आपको यह सोचना होगा कि हम किस प्रकार इस अभियान
में जुड़ सकते हैं । इसमें सब प्रकार के लोगों का उपयोग हो सकता है , आंशिक समय
देनेवाले , एक नि्श्चित प्रकार का ही काम करनेवाले से ले कर इसी काम में पूरी
शक्ति लगाने वाले तक की । अपने अलावा औरों को जुटाने वाले भी चाहिए ।
हमारे विद्यालय की दृष्टि से इसमें प्रशिक्षण पाने के
लिए योग्य एवं उत्सुक प्रसिक्षार्थी चाहिए । हमारे काम में प्रत्यक्ष सहभागी बनने
के लिए साथी चाहिए। आप अपने कुछ नये साथियों को हमारे खुले सहजीवन से परिचित कराके
अपनी सेकण्ड लाइन तैयार करना सोचते हों तो एक दो साथियों को उस दृष्टि से यहां
भेजिए ।
और उपरोक्त पांचों प्रकार के कामों में अभिज्ञता
रखनेवाले साथी तो इस अभियान के निहायत जरूरी है ही । अपने क्षेत्रों यदि आज तक ऐसा
कुछ न कुछ शुरु न कर चुके हों तो आज से शुरु कीजिए। इस काम में क्या अड़चनें आ रही
हैं उनके विषय में हम आपस में सलाह मशविरा तो करें । और यह भी खोजें कि कहां से
किस प्रकार की सहायता मिल सकती है।स्व.श्री सूर्यकांत त्रिपाठी ( हरिवंशराय बच्चन
की पंक्तियां) की एक पंक्ति ने मुझे तो बरसों से क्या दशाब्दियों से प्रेरित किया
है:
’आज लहरों में निमंत्रण, तीर पर कैसे रुकूँ मैं ?’
स्नेहसने सलाम,
नारायण देसाई.
(इन विचारों से मेरी सहमती नहीं है इसीलिए मैं एक
राजनैतिक दल से जुड़ा हूँ ।)
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